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कीमतें रोक पाने में नाकाम मंत्री शरद पवार का यह नुस्खा हास्यास्पद है
महंगाई रोक पाने में बुरी तरह नाकाम रही केंद्र सरकार के कृषि मंत्री शरद पवार पता नहीं किस मिट्टी के बने हैं। देशभर में उनकी थू-थू हो रही है लेकिन कायर्प्रणाली में सुधार के बजाय वह घटिया तर्क दे रहे हैं। पहले कहा, हाय सुखा पड़ गया, फिर महंगाई के लिए यूपी जैसे राज्यों को जिम्मेदार बताया। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती ने पलटवार किया तो कहा महंगाई के लिए वह अकेले नहीं प्रधानमंत्री समेत पूरी कैबिनेट जिम्मेदार हैं। इसमें क्या शक, लेकिन हाल ही में राकांपा की अपनी इनहाउस पत्रिका राष्ट्रवादी में छपे एक लेख में देशवासियों को सुझाव दिया गया है कि महंगाई से मुकाबले के लिए चीनी की खपत कम करें। चीनी कम खाने के फायदे गिनाए गए हैं। अधिक चीनी से होने वाले नुकसान का हवाला दिया गया है। बताया गया है कि कम उम्र में ही ४५ प्रतिशत लोग डायबिटीज के शिकार हो रहे हैं। आशय कि जब हमें चावल, दाल, आलू से पर्याप्त मात्रा में शुगर मिल जाती है तो क्या जरूरत है ऊपर से चीनी खाने की? एक तो महंगी चीनी ऊपर से बीमारी को न्योता, अपने मंत्री की नाकामी छिपाने के लिए सुझाव उत्तम है। लेकिन क्या-क्या खाएं और क्या-क्या छोड़ें? चावल, दाल आटा सस्ता है क्या? नया आलू पुराना हो चला, भाव १० रुपए से नीचे नहीं गया।
पता नहीं महंगाई में चीनी कम का लेख छापने से पहले पत्रिका ने पवार की राय जानी या नहीं? देशवासी चीनी की खपत कम कर देंगे तो हो सकता है शुगर लॉबी पवार से नाराज हो जाए। कहा तो यही जाता है कि पवार के इस लॉबी से मधुर रिश्ते हैं। पता नहीं आन रिकार्ड पवार के पास अपनी कितनी चीनी मिलें हैं, हैं भी या नहीं, लेकिन अब तक उन्होंने जितने निर्णय लिए वे सब मिल मालिकों के हित में गए। बड़े आंदोलन के बाद गन्ने का भाव बढ़ा लेकिन उस अनुपात नहीं जिस अनुपात में चीनी के दाम बढ़े। खुदरा में चीनी ४६-४८ रुपए किलो बिक रही है। एक समय चीनी के भाव २० रुपए से ऊपर जाते ही हल्ला मच जाता था, सरकार दबाव में आ जाती थी। अब ५० तक भाव पहुंचने पर भी दोष जनता को ही दिया जा रहा है जो डायबिटीज की परवाह किए बिना खपत बढ़ाए जा रही है। अचानक दलील दी जाने लगी है कि चीनी की लागत बढ़ गई है, चुनाव के साल भीतर ही इसे बढ़ना था। मुख्यमंत्रियों की बैठक में वही हुआ जो होना था। दोषारोपण से हल निकलने की कोई उम्मीद नहीं। बढ़ती महंगाई से केंद्र सरकार वाकई चिंतित है या फिर चिंतित होने का दिखावा कर रही है, कहना मुश्किल है। कम से कम देश के खाद्य एवं रसद मंत्री पर तो इसका असर नहीं दिखता। गठबंधन दल के नाते मंत्रालय समझौते में मिला है लिहाजा नाकामी का ठप्पा लगने के बाद शिवराज पाटिल की तरह कुरसी जाने का भी डर नहीं। जमाखोरी, मुनाफाखोरी चरम पर है, राज्य सरकारें केंद्र की सुन नहीं रहीं। यह धारणा यकीन में बदलती जा रही है कि केंद्र सरकार का नेतृत्व कमजोर हाथों में है।
सौ दिनों में महंगाई रोकने का चुनावी वादा याद दिलाने का कोई मतलब नहीं रहा। बजट की तैयारी में जुटे प्रणब दा इसका बुरा मान जाते हैं, कहते हैं महंगाई पर राजनीति ठीक नहीं। दादा का बजट आने वाला है देखना मुनासिब होगा कि टैक्स की मार कितनी पड़ती है। पिछली बार ही आर्थिक सुधारों का दूसरा दौर शुरू करने का हल्ला उठा था और विशेषज्ञ गुणा-भाग में जुटे थे यही उपयुक्त समय है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बेहतर जानते होंगे कि मंदी के नाम पर उनकी सरकार ने जो राहत दी थी उसका कितना हिस्सा कंपनियों की जेब में गया कितना उपभोक्ताओं को। प्रधानमंत्री कहते हैं महंगाई का सबसे बुरा दौर बीत चुका है। मतलब दिल कड़ा रखिए आगे भी महंगाई खत्म नहीं होने वाली।
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