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माया की माला और मनगढ़ के पीड़ित

आउटर सिग्नल
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बसपा की लखनऊ रैली में मायावती को पहनाई गई माला में हजार रुपए के कितने नोट गुंथे थे? उसकी कीमत पांच करोड़ रुपए होगी या १०-१५ यह इतना मायने नहीं रखता जितना कुछ दिनों पहले का वह बयान जिसमे कहा गया था कि मनगढ़ के पीड़ितों को देने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार के पास धन नहीं है। यह बात अलग है कि जब कांग्रेसी नेताओं ने इसे राजनीतिक मुद्दा बनाया तो मायावती ने मुआवजे की घोषणा की। बसपा की रैली में मायावती के संबोधन से अधिक उनकी माला पर चरचा हुई, होना ही था। हजार रुपए के नोटों की माला न होती तो शायद राष्ट्रीय स्तर पर वह फोटो सुर्खियां न बटोरता। गरीबों की मसीहा मायावती इससे पहले रैलियों में सोने का मुकुट धारण करती रही हैं। उनका वार्षिक व्यक्तिगत इनकम टैक्स कुछ साल पहले २०-२५ करोड़ से अधिक बताया गया था। यूपी जैसे बड़े राज्य के सत्ता शीर्ष पर बैठी दलित की यह बेटी बखूबी जानती है कि उसके मतदाता क्या पसंद करते हैं, क्या नहीं। समाज का यह वंचित तबका मायावती को जब सिंहासन पर देखता है तो कहीं न कहीं उसके अहं की तुष्टि होती है। हजारी नोटों की माला संभवतया इसी मंशा से गुंथी गई होगी। मायावती का हर कदम नपातुला और वोटवैंक को समर्पित होता है। सर्वजन हिताय की जय।
बसपा सुप्रीमो के जन्मदिन पर हर विधायक क्षेत्र से चंदा वसूली इसलिए रूक गया कि दुर्भाग्य से औरैया के एक इंजीनियर चंदा न देकर बसपा विधायक शेखर तिवारी को दुश्मन बना बैठे और उनकी हत्या हो गई। माला के हजारी नोट कहां से आए, विपक्ष की टिप्पणी बेतुकी लगती है। इसबार मायावती ने अपना जन्मदिन सादे ढंग से मनाया था लिहाजा उसकी भरपाई कहीं न कहीं किसी रूप में होनी ही थी। सपा, भाजपा और कांग्रेस ने इस मुद्दे को लोकसभा में उठाते हुए जांच की मांग की जो विशुद्ध रूप से राजनीतिक और संसद का समय जाया करने वाली है। क्या कभी ये जांच संभव है कि राजनीतिक दलों को चंदा कौन देता है, उनके कोष में करोड़ों-अरबों रुपए कहां से आते हैं? राजनीतिक रैलियों का खर्चे कौन उठाता है और उसमे सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग (स्थायी भाव है) क्यों होता है जैसे सवाल अब घिसेपिटे और किसी काम के नहीं। पार्टी की रैलियों में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग की दीक्षा देने वाली कांग्रेस ही है। उत्तर प्रदेश में जब कांग्रेस की सरकार होती थी तब भी रोडवेज की बसें पार्टी की भीड़ ढोती थीं। बसपा ने दो कदम आगे बढ़कर चंदा संस्कृति को भी संस्थागत रूप दे दिया। इटावा के एक इंजीनियर हाल ही बसपा विधायक की खौफ से नौकरी छोड़ भाग खड़े हुए थे।
मायावती जो करती हैं डंके की चोट पर। मूर्तियों व समारकों के निर्माण के मामले में सुप्रीम कोर्ट जब डंडा लेकर खड़ा हुआ तब जाकर माया सरकार नरम पड़ी। तीन हजार करोड़ रुपए के इस अनावश्यक खर्च को वह जायज ठहराती हैं। कहती हैं कि बजट का एक प्रतिशत ही तो खर्च किया है। दरअसल मायावती जानती हैं यह विरोध तात्कालिक है और राजनीति से प्रेरित भी। उनका उद्देश्य स्मारकों के जरिए अपने को इतिहास में दर्ज कराना है। ठीक ही पूछती हैं कानून के किस किताब में लिखा है कि जीवित नेता की मूर्ति नहीं स्थापित की जाती? सभी जानते हैं कानून पढ़कर राजकाज नहीं चलाया जाता। इस तर्क का भी कांग्रेस क्या किसी दल के पास जवाब नहीं कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के नाम पर जब देश भर में चार सौ परियोजनाएं समर्पित हो सकती हैं तो दलित महापुरुषों के नाम पर लखनऊ या उत्तर प्रदेश में दो-चार पार्क बन गए तो क्या पहाड़ टूट पड़ा? यानी वह दलितों के सम्मान की लड़ाई लड़ रही हैं और इस सम्मान में कोई कमी नहीं आने देंगी।
मायावती की प्रशासनिक दक्षता कहें या उनका खौफ, मंत्री विधायक ही नहीं अफसर सहमे – सहमे से रहते हैं। रैली के दौरान मंच के पास मधुमक्खियों का पहुंचना भले बहन जी को बसपा का अभिनंदन नजर आया लेकिन नौकरशाही ने सत्ता में अपना भाव बढ़ाने के लिए उसमे साजिश देख ली और लगे हाथ जांच का आदेश दे डाला। हो सकता है आगे से रैलीस्थल के आसापास से मधुमक्खियों के छत्ते हटा दिए जाएं या फिर उनपर पहरा बिठा दिया जाए, विपक्ष के माफिक भिनभिनाएं, लेकिन सत्ता के करीब जाने की जुर्रत न करें। गुडवर्क दिखा कर अपना प्वाइंट बढ़ाने के लिए ही एक अतिउत्साही इंस्पेक्टर ने मुख्यमंत्री का पोस्टर फाड़ने के कथित जुर्म में सैनिक स्कूल के चार मेधावी बच्चों को जेल भेज दिया वह भी इम्तिहान के मौके पर।जब सत्ता सिर्फ तारीफ सुनने की चाहत रखती हो तो पुलिस इसी तरह का गुडवर्क दिखाने लगती है। वैसे इस आरोप में भी दम है कि दाखिला न देने पर इंस्पेक्टर ने सैनिक स्कूल से अपना बदला चुकाया था। इंस्पेक्टर निलंबित हुआ लेकिन चार बच्चे १० दिनों की जेल काट आए तब। पलिस में निलंबन को वैसे भी दंड नहीं माना जाता। कहने की जरूरत नहीं कि मायावती सबकी लगाम खींचकर रखती हैं। मंत्री हो या विधायक, वहीं तक छूट देती हैं जहां तक उनका राजनीतिक हित प्रभावित नहीं हो। दूसरी सरकार होती तो हो सकता था कि औरैया कांड का विधायक शेखर तिवारी बच जाता या बचा लिया जाता। शेखर तिवारी सरीखे कुछ और भी जेल में हैं।

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