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माला नहीं, पढ़ें मानसिकता

आउटर सिग्नल
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उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने रैली के तीसरे दिन जब दूसरी बार नोटों की माला पहनी तो बात साफ हो गई कि हजारी नोटों की पहली माला मंत्रियों-विधायकों या कार्यकर्ताओं की ओर से आकस्मिक तुच्छ भेंट नहीं थी। सर्वजन को चौंकाने वाली थी लेकिन योजना के मुताबिक नोट गुंथे गए थे। विपक्ष चिढ़ता है तो और चिढ़े, मनुवादी मीडिया (मायावती के शब्दों में) जितनी आलोचना करेगा वोट बैंक जय बोलेगा। वरिष्ठ मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने दो कदम आगे बढ़कर भविष्य में भी नोटों की माला पहनाने की घोषणा कर डाली, सच मानें, यही है बहुजन हिताय का सारतत्व। बहन जी खुश, मंत्री-विधायक खुश तो प्रदेश की जनता भी खुशहाल।
माला-माल होने के बाद बसपा सुप्रीमो ने प्रदेश में चुनाव की डुगडुगी पीट दी, समय कम है कार्यकर्ता चुनाव में जुट जाएं। झंडा बैनर निकाल लें, आंदोलन करें, जिला मुख्यालयों पर धरना दें, जुलूस निकालें। क्यों, आखिर किसलिए? जनहित में या सरकार के सत्कर्म गिनाने के लिए ? जी नहीं, विपक्ष का पर्दाफाश करने के लिए। सत्ता में तो आप हैं विपक्ष ने क्या गलती कर दी? रैली को असफल बनाने का प्रयास किया, माला की तारीफ के बजाय उसका अपमान किया, जांच की मांग उठा रहे (जो कभी नहीं होने वाली)। फैशन के हिसाब से एक मुद्दा महंगाई भी है लेकिन सत्ता दल और उसके कारिंदे जब महंगाई के विरोध में आंदोलन करें तो जनता किसके द्वार जाएगी। खासतौर से वे पार्जीजन जो माला में हजार-हजार के करेंसी गुंथने की कूबत रखते हों। महंगाई किसकी देन है? क्या राज्य सरकार जनता को महंगाई से राहत देने की जुगत नहीं कर सकती? कर सकती है लेकिन नहीं, खुद चोरी करके दूसरे को चोर बताना ही अपने यहां राजनीति की खूबसूरती और लोकतंत्र है। वैसे भी भला हो महिला आरक्षण विधेयक का, महंगाई मुद्दा ही नहीं रह गई। कहां तो उम्मीद थी कि बजट सत्र में विपक्ष महंगाई पर सरकार से दो-दो हाथ करेगा लेकिन वाह री मनमोहनी सरकार, एक ही दांव में विपक्ष की एकजुटता हवा हो गई। महिला विधेयक पर मची उठापटक में लोग आटा-दाल का भाव भुला बैठे। इसी बीच जनहित में माननीय शरद पवार ने आटा महंगा करने का एलान दे दिया। ठीक ही किया दाल – चीनी महंगी हो गई, दूध के दाम बढ़े, जनता रो-पीट कर चुप हो गई। पवार के खिलाफ बोलने की सजा क्या होती है कोई कांग्रेस प्रवक्ता सत्यव्रत चतुर्वेदी से पूछे।
बहरहाल बात नोटों की माला की। बहुमत से चुन कर आई मायावती सरकार के तीन साल पूरे होने जा रहे हैं। याद करें, मायावती ने कोई खास वादा नहीं किया था। न तो कहा था कि प्रदेश को विकास की गंगा बहा देंगी, न हर हाथ को काम और हर खेत को पानी जैसा लुभावना नारा दिया था। शहरी बोटर उनके खाते में दर्ज नहीं लिहाजा यह भी नहीं कहा कि २४ घंटे बिजली पानी की आपूर्ति सुनिश्चित की जाएगी। दलित नेताओं को छोड़ दें उनके वोट बैंक के लिए कार सपना ही है लिहाजा सड़क सुधार का वादा गैरजरूरी था। हां एक वादा किया था कि सत्ता में आते ही वह मुलायम सिंह और अमर सिंह को जेल भेजेंगी। शायद इसलिए कि लोग तब सपा सरकार के नाराज थे। कानून व्यवस्था खराब दौर में थी, सत्ता प्रायोजित अपराध और अपराधियों पर अंकुश नहीं था। मायावती का वह नारा बहुजन ही सर्वजन को भी भाया था। लगा कि तिलक-तराजू और तलवार की बात पुरानी हुई, हाथी का रूप ब्रह्मा विष्णु महेश हो रहा लेकिन राजनीति देखिए सत्ता में आते ही मायावती ने मुलायम-अमर सिंह ( हारे थे, मरे नहीं ) को जेल भेजने से माफी दे दी। सर्वजन के लिए कितना काम किया यह तो पता नहीं लेकिन गंगा-जमुना एक्सप्रेस की योजना बनने लगी। इन योजनाओं की सुन्दरता यह रही कि टेंडर पड़ने और खुलने से पहले ही सबको पता चल जाता था कि ठेका फलां कंपनी को मिलेगा। रिलायंस फ्रेश एक झटके में फ्रेश होकर प्रदेश से बाहर हो गई। फलेफूले तो सिर्फ स्मारक और मूर्तियां। गरीबों व दलितों के उत्थान के लिए कोई उल्लेखनीय काम हुआ हो याद नहीं आता।
मायावती पहले जब भी सत्ता में रहीं अंबेडकर गांवों के विकास पर खास जोर देती थीं और अफसरों के लिए ये गांव तीर्थ सरीखे हो जाते थे। इस कार्यकाल में येसा भी कुछ नहीं दिखा। रही बात अपराध रोकने की तो बसपा विधायक राजू पाल की हत्या में शामिल यतीक अहमद बसपा में ससम्मान दाखिल हुए। मऊ दंगे के दोषियों को सजा दिलाने के चुनावी वादे के विपरीत आरोपी मुख्तार अंसारी को बसपा ने वाराणसी से चुनाव लड़ाया, उसके भाई को भी टिकट दिया। कहने का मतलब मायावती आलोचनाओं से नहीं डरतीं और अपने ही अंदाज से सत्ता संचालन करती हैं। उत्तर प्रदेश में दंगों का एक लंबा काला इतिहास रहा है इसलिए बरेली दंगा नोटों की माला न पहनने का कारण नहीं बन सकता। यही कामना है कि गरीबों दलितों की मसीहा हजारी नोट ही क्यों डालरों से गुंथी माला पहनें, रोज पहनें, लेकिन इतना जरूर करें कि राज्य में कोई भूख से न मरे। गरीब-दलित का बच्चा पढ़ने स्कूल जरूर जाए, बीमार पड़े तो उसे गांव के सरकारी अस्पताल में डाक्टर बाबू मिलें और भगाएं नहीं, दवा दें। बीपीएल का अनाज माफिया न डकारें। चीनी और मिट्टी का तेल हर माह न सही कम से कम होली-दिवाली तो मिल ही जाए। समाज का वंचित वर्ग भी इस लायक हो जाए कि माला न सही अपनी जेब में वह हजार – पांच सौ के नोट लेकर घूम सके।

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