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गुड़ खाएं और गुलगुले से परहेज

आउटर सिग्नल
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जहां संस्कार में अतिथि देवो भव शामिल हो, वहां कांग्रेस और कांग्रेसी सरकारें अमिताभ बच्च्न और उनके परिवार के साथ जिस तरह का क्षुद्र व्यवहार कर रही हैं वह शर्मिंदा करने वाला है। क्या कांग्रेसियों का धर्म – कर्म सिर्फ एक परिवार को खुश रखना भर रह गया है? येसा लगता है देश कांग्रेस का हो गया है और कांग्रेस निजी तौर पर सोनिया गांधी की। व्यक्तिगत पसंद – नापसंद सत्ता दल का सरकारी एजेंडा नहीं हो सकता। इमरजेंसी का दौर बहुतों को अभी याद होगा जब कांग्रेस के चंद चाटुकारों ने इंदिरा इज इंडिया का नारा देकर इंदिरा गांधी जैसी तेजवान, शक्तिशाली व दूरदर्शी नेता का बंटाधार करके रख दिया था। सोनिया को येसी चाटुकारिता से बचना चाहिए।
अमिताभ का कुसूर क्या है? मुंबई में नवनिर्मित सी-लिंक के उद्घाटन समारोह में वह खुद ब खुद नहीं गए, एनसीपी के बुलावे पर अतिथि बने थे। उस समारोह में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण भी पहुंचे। समारोह का बकायदा सरकारी निमंत्रण पत्र छपा और बंटा था। यह बात दीगर है कि अपनी सफाई में चव्हाण ने कहा कि उन्हें अगर पता होता कि अमिताभ आ रहे हैं वह समारोह में नहीं जाते। यह एक अलग मुद्दा हो सकता है कि जिस समारोह में मुख्यमंत्री जा रहे हों उसमे कौन मुख्य अतिथि है कैसे पता नहीं चला, वह भी तब जबकि आयोजन सहयोगी दल एनसीपी का था। गठबंधन की सरकार क्या इसी तरह काम करती हैं? यह तो वही हुआ कि गुड़ खाएं और गुलगुले से परहेज । एनसीपी के साथ सत्ता की मलाई खाने में कांग्रेस को एतराज नहीं लेकिन उसके मान्य अतिथि (अमिताभ) मंजूर नहीं। तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद एनसीपी इसलिए प्रिय है क्योंकि उसके बिना कांग्रेस को महाराष्ट्र की सत्ता से दूर रहना पड़ेगा। मीठा-मीठा गप्प वाली ही बात है, वरना बात ज्यादा पुरानी नहीं, शरद पवार ने कांग्रेस क्यों छोड़ी या तोड़ी थी? सोनिया के विदेशी मूल के सवाल पर किसने विरोध का झंडा उठाया था? माना राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी स्थायी नहीं होती, मौका और लाभ के प्रतिशत के अनुसार रिश्ते बनते व बिगड़ते हैं। आज महंगाई के कारण पूरे देश में संप्रग सरकार की छीछालेदर हो रही है फिर भी पवार प्रेम सत्ता की अनिवार्य शर्त बना हुआ है। एनसीपी की देखिए, उसी ने अमिताभ को सी-लिंक के समारोह में निमंत्रित किया और विवाद होने पर एक सामान्य सा बयान (व्यर्थ का विवाद) देकर वह चुप बैठ गई। कम से कम उसे तो मुंबतोड़ जवाब देना था, हां हमने बुलाया था और हमारे अतिथि को अपमानित करने का कांग्रेस कोई हक नहीं रखती। अशोक चव्हाण तो कुरसी को लेकर इतने सहमे कि मराठी विद्वानों के पुणे वाले समारोह में एक दिन पहले ही हाजिरी लगाने पहुंच गए ताकि फिर बिग-बी के साथ मंच साझा करने का लांछन न सहना पड़े।
शीला दीक्षित को क्या हो गया? दिल्ली सरकार की मुख्यमंत्री हैं और यादाश्त इतनी कमजोर कि १० मार्च का समारोह भी भूल गईं जिसमें वह छोटे बच्चन अभिषेक के साथ मंच पर बैठी थीं। इसी समारोह में उन्होंने अभिषेक को अर्थ आवर का ब्रांड अंबेसडर घोषित किया था और शनिवार की रात जब इंडिया गेट पर अर्थ आवर मनाया गया तो अभिषेक को वहां आने से रोक दिया गया। वीडियो से उनके फुटेज हटवा दिए गए, अति उत्साह में या शीला दीक्षित को खुश करने के लिए आयोजकों ने वे पोस्टर तक फाड़ डाले जिनमें अभिषेक थे। राजनीतिक मतभेद और विरोध तो समझ में आता है लेकिन सरकार इसका क्या तर्क देगी? पता नहीं १० मार्च के फोटो पर गांधी परिवार की नजर पड़ी थी या नहीं जिसमें दिल्ली की पर्यावरण प्रेमी मुख्यमंत्री प्रफुल्लित होकर अभिषेक के साथ मंच पर विराजमान थीं। अब वह इतना कहकर हाथ झाड़ लेती हैं कि समारोह के इंतजाम की जानकारी उन्हें नहीं। क्या बुढ़ापे में सचमुच यादाश्त कमजोर पड़ने लगती है?

राजनीति के रंग देखें, अमर सिंह एक समय कांग्रेस से अधिक सोनिया के आलोचक रहे। एटमी डील पर जब पहली संप्रग सरकार खतरे में पड़ी तो वही मुलायम को कांग्रेस के करीब लाने का सूत्रधार बने। अमर सिंह जो अमिताभ के सबसे नजदीकी राजनीतिक व पारिवारिक मित्र थे और संबंध बड़े-छोटे भाई का था, आज नई राजनीतिक जमीन की तलाश में सुबह-शाम सोनिया – राहुल चालीसा का पाठ कर रहे हैं और इस मुहिम में बच्चन परिवार कहीं पीछे छूट गया। क्या अमिताभ का पक्ष साधने पर कांग्रेस की राह उनके लिए कठिन हो सकती है? भाजपा ने जरूर पक्ष लिया है। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने भी समर्थन में आवाज उठाई है जिनका उत्तर भारतीयों पर हमले के मुद्दे पर अमिताभ से मतभेद हो गया था। यह जानते हुए भी कि कांग्रेस नहीं सुनेगी, भारतीय ओलंपिक संघ के उपाध्यक्ष वरिष्ठ विजय मल्होत्रा ने बिग-बी को राष्ट्रकुल खेलों का ब्रांड अंबेसडर बनाने की मांग कर डाली है।
महत्वपूर्ण यह कि कांग्रेसी सरकारों द्वारा बच्चन परिवार का अघोषित बहिष्कार के लगातार प्रयासों के बीच हाईकमान सोनिया गांधी चुप हैं। पारिवारिक मतभेद (अगर कोई हो) से ऊपर उठकर कम से कम उन्हें इतना जरूर कहना चाहिए जो हो रहा वह ठीक नहीं। आखिर यह वही परिवार है जिसे राजनीति में उतारने का पहला श्रेय स्व. राजीव गांधी को जाता है।

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